शनिवार, 6 जून 2020

लघू कहानी- पतझड़


पतझड़

    सुनो, क्या तुमने कभी शाखों के पिले पत्तों को गिरते देखा है?...उन्हें ज़िंदगी के आखरी पल जीते देखा है?..उन आखिर पलों में हवाओ से लड़ते देखा है उन्हें तुमने?...

   मैं भी तुम्हारे लिए ज़माने की हवाओं से उसी तरह लड़ रहा था कि कहीं तुम्हे खो न दू या कही मैं तुम बिन खो न जाऊ..मेरी पहचान तुम थी..और तुम्हे थाम कर जीना ही मेरी ज़िंदगी थी...

......लेकिन तुम शाख थी, तुमने हाथ छोड़ दिया...क्योंकि मैं बीते मौसम-ऐ-बहार, जो आज पतछड़ हूँ,..और तुम्हे तो आने वाली बहार का इंतज़ार था..


                                         -शहनाज़ ख़ान


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