शुक्रवार, 8 मई 2020

कहानी- बचपन के साथी


बचपन के साथी


       मैं आज अपनी छत पर बहोत वक़्त के बाद आ गया था।
     बिजली नहीं थी, और गर्मी से बुरा हाल हुआ जा रहा था। बहोत देर इंतज़ार के बाद सोचा शायद छत पर हवा चल रही हो, तो अपना मोबाइल और एक पानी की बोत्तल ले कर आ गया।

        ऊपर छत पर भी कोई खास हवा नहीं थी, लेकिन कमरे की घुटन से बेहतर थी।
      बैठते ही मैंने अपना मोबाइल ऑन करके उस पर मेसेज और नोटिफिकेशन देखी। फिर सोचा ....

"आज कोई मूवी देखता हूँ।...."

     थोड़ी देर बाद महसूस हुआ कि मुझे प्यास लगी है। मैंने बोत्तल खोल कर पानी पीना शुरू किया ही था कि मेरी नज़र आसमान पर गयी।

    " एक टूटता तारा दिखाई दिया.."  

    मैं ठहर गया, एक पल में याद आया, कोई विश मांग लूँ, लेकिन फिर तभी याद आया.....

   "वो तो बचपन की बात थी।... मैं अब भी ऐसे कैसे सोच रहा हूँ?.."

     देखते ही देखते मैं सोचो में खो गया।  मेरी जब भी अब कभी सितारों पर नज़र जाती है, तो मुझे हैरत होती है। आज पूछ ही लिया खुद से...

    "क्या मैं इतना मशरूफ हूँ कि दिनों, महीनों और सालों इन सितारों को देखना ही भूल जाता हूँ?.." 

     फिर यहाँ वहाँ देखा, याद करने की कोशिश कर रहा था कि वो पहले वाले सितारे आज भी यहीं है क्या?..
     एक जो बड़ा सितारा था, हाँ ये भी यहीं है।।

     ओहह.... आज इन सितारों से मिल कर ऐसा लग रहा है, जैसे खोये हुए बचपन के साथी मिल गए हो।

      टीम-टीम करके चमकते सितारे, जैसे आज मुझसे मिल कर मुस्कुरा रहें हैं। मैं बहोत देर आसमान को मुस्कुरा कर देखता रहा और जाने कब सो गया।

      सुबह जब मेरी आँख खुली तो सारे सितारे, थक कर अपने घर जा चुके थे।।
      अब जाने कब मिलना हो, कब याद आये, कब भागती ज़िन्दगी की रेस वक़्त दे और मैं तुमसे मिलने आऊँ?...



- शहनाज़ ख़ान

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