गुरुवार, 11 जून 2020

कविता- वेदना


वेदना

ये जंग अगर जीत भी जायेंगे,
कितने साथी तब तक साथ छोड़ जायेंगे,
जाने कितनो की सूरत धुंधली हो जायेगी,
कितने तो घर भी नही पहुँच पाएंगे....

तरसती आँखे राह देखेंगी,
भूखा आएगा लाल,रोटियां माँ सेकेंगी,
दुआएं कैसे करेंगी हिफाज़त,
जब तपती सड़के आग फेकेंगी....

परिवार को बचाएं या खुद को?,
मरने की दहशत यहां सबको,
इंसान इंसानियत भूल गया है,
शहर नगर सब छूट गया है...

इंसान है, थक ही जायेंगे,
पाँव के छालो को कब तक समझायेंगे,
घर जाते ही माँ से लग रो जायेंगे,
थोडा चल ले और, फिर मीलों से चेन पाएंगे...

जिसकी थाल भरी हो वो क्या भूख को जानेगा?
ए.सी. के कमरों से कोई क्या धुप को तपेगा?,
तपती सड़क पर नन्ने पेरों का मीलो सफ़र,
देश कैसे भूल पायेगा..?

आत्मनिर्भर की नींद से हुकूमत जगाओ,
जो बोलता है,उसे भी भूखे पेट सड़क नपाओ,
और हालात से जो लड़ रहा है,
ज्ञान उस मज़लूम को न सुनाओ...।

                                             -शहनाज़ ख़ान








शनिवार, 6 जून 2020

लघू कहानी- पतझड़


पतझड़

    सुनो, क्या तुमने कभी शाखों के पिले पत्तों को गिरते देखा है?...उन्हें ज़िंदगी के आखरी पल जीते देखा है?..उन आखिर पलों में हवाओ से लड़ते देखा है उन्हें तुमने?...

   मैं भी तुम्हारे लिए ज़माने की हवाओं से उसी तरह लड़ रहा था कि कहीं तुम्हे खो न दू या कही मैं तुम बिन खो न जाऊ..मेरी पहचान तुम थी..और तुम्हे थाम कर जीना ही मेरी ज़िंदगी थी...

......लेकिन तुम शाख थी, तुमने हाथ छोड़ दिया...क्योंकि मैं बीते मौसम-ऐ-बहार, जो आज पतछड़ हूँ,..और तुम्हे तो आने वाली बहार का इंतज़ार था..


                                         -शहनाज़ ख़ान