वेदना
ये जंग अगर जीत भी जायेंगे,
कितने साथी तब तक साथ छोड़ जायेंगे,
जाने कितनो की सूरत धुंधली हो जायेगी,
कितने तो घर भी नही पहुँच पाएंगे....
तरसती आँखे राह देखेंगी,
भूखा आएगा लाल,रोटियां माँ सेकेंगी,
दुआएं कैसे करेंगी हिफाज़त,
जब तपती सड़के आग फेकेंगी....
परिवार को बचाएं या खुद को?,
मरने की दहशत यहां सबको,
इंसान इंसानियत भूल गया है,
शहर नगर सब छूट गया है...
इंसान है, थक ही जायेंगे,
पाँव के छालो को कब तक समझायेंगे,
घर जाते ही माँ से लग रो जायेंगे,
थोडा चल ले और, फिर मीलों से चेन पाएंगे...
जिसकी थाल भरी हो वो क्या भूख को जानेगा?
ए.सी. के कमरों से कोई क्या धुप को तपेगा?,
तपती सड़क पर नन्ने पेरों का मीलो सफ़र,
देश कैसे भूल पायेगा..?
आत्मनिर्भर की नींद से हुकूमत जगाओ,
जो बोलता है,उसे भी भूखे पेट सड़क नपाओ,
और हालात से जो लड़ रहा है,
ज्ञान उस मज़लूम को न सुनाओ...।
-शहनाज़ ख़ान





